उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर साधारणो यमुभयोः प्रणयः स्मरस्य, तप्तेन तप्तमयसा घटनाय योग्यम् | ~ विक्रमोर्वशीयं प्रथम अंक सूत्रधार नीचे पृथ्वी पर वसन्त की कुसुम-विभा छाई है, ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का, निर्मेघ गगन में | खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों डीप रहे हैं, चमक रहे ही नील चीयर पर बूटे ज्यों चाँदी के; या प्रशान्त, … पढ़ना जारी रखें उर्वशी

प्रति व्यर्थ

जिसे हम व्यर्थ कहते है, वह हमारी एक-विमीय सोच का नातीजा है। कोइ दुसरा तरिका तो होगा? हमारी कल्पना की सीमा का अंत जहां होता है, वहीं पर हर निरर्थक बात शुरु होती है। जब हम संकल्प का आभाव अनुभव करते हैं, हम उसे, व्यर्थ कहते हैं। संकल्प सुनिश्चित होते हैं; पर हमारी इच्छा व्यक्तिपरक और सीमीत होती है। हमें इस घेरे से बाहर निकलना … पढ़ना जारी रखें प्रति व्यर्थ

भीतर: अंतिम सीमा

कोई जगह नही बची। अपनी बाहों या पैरों को फ़ैलाने के लिए – निचे लेटकर नीले आकाश की ओर देखने के लिए। ज़ोर से हसने के लिए। कोई जगह नही बची। एक सुन्दर एहसास को सौ बार महसूस करने के लिए। जहाँ गूँजों की प्रतिध्वनि बीते क्षणों को लौटाए। कोई जगह नही बची। जहां सभी … पढ़ना जारी रखें भीतर: अंतिम सीमा

दोस्तों से गुज़ारिश

वक़्त होता नहीं, निकलना पड़ता है, बंद शीशों की अलमारी के दरवाजे खोलो। तम्मान्ना से ताले तोड़ो; पीछे वक़्त सड़ता है, मिल बैठो, कुछ हमारी सुनो, कुछ अपनी कहो।

अन्दर, एक खलनायक

काला वही जो सताता है, शांति भंग करता है। हर वह बात जो मन के क़रीब हो, घनिष्ठ हो, उसे बदलता हुआ, उसे तोड़ता हुआ। वो बुरा आदमी। तुम्हारे अन्दर बसा हुआ। तुम्हारा ही असिद्ध रूप। तुम्हे वहां ले जाता है, जिस जगह से तुम परिचित नहीं। डर पैदा करता है, असुरक्षितता की पहचान करवाता … पढ़ना जारी रखें अन्दर, एक खलनायक

आभार

कहते हैं, जो आप कहना चाहते हैं, उसे किसीने, कही पर, पहले ही कह दिया है. आज मेरे मन की बात, बहुत सुन्दरता से, शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने कहा है. जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं, सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, … पढ़ना जारी रखें आभार

मेरे शब्द और मैं

"आप इतनी अच्छी हिंदी बोल लेते हो?" बम्बई में रह कर, आपकी पूरी दुनिया सुधर सकती है. आपकी भाषा, मगर, भ्रष्ट हो जाएगी, शायद नष्ट भी हो जाएगी. पता नही कहाँ, पता नहीं क्यूँ, बम्बई के बाहर, मैं अच्छी हिंदी बोल लेता हूँ. आयेला, गयेला, लागेला - इन शब्दों का प्रयोग बम्बई के बाहर नहीं … पढ़ना जारी रखें मेरे शब्द और मैं

अब नहीं

कुछ बातें ऐसी होती है जो चाहने पर भी भूली नहीं जाती। कुछ लोग भी ऐसे होते हैं। तुम उन में से एक हो। तुम्हारा गुस्सा जायज़ था, शायद, पर तब के मेरे हालत तुम्हारे गुस्से से भी जायज़ थे। और तुम मेरे हालात को खूब पहचानते थे। जब उन हालात के नीचे मैं पूरी … पढ़ना जारी रखें अब नहीं

हम रहें न हम, तुम रहें न तुम

आप कि अभिलाषा मेरा बलिदान आप का आनंद मेरा बदलना आपका खिन्न आपकी एक नई अभिलाषा मेरा बलिदान आप का आनंद मेरा बदलना आपका खिन्न आपकी एक नई...

धर्म का अधिकार

मंदिर के सामने उनका दफ्तर रस्ते के इस पार मंदिर और उस पार उनका दफ्तर वे जो बन बैठे है हमारे धर्म के प्रतिनिधि माहोल बना बैठे है, शोर असीमित. शाम की आरती सुनाई नहीं देती, इन धर्माधिकारियों के शराबी शोर में भगवान तो बुत ही था, अब भक्त भी बुत बन बैठे अब राजनीती … पढ़ना जारी रखें धर्म का अधिकार