भाषा में अस्तित्व की खोज करते-करते, कुछ महिनों के यह यात्रा। ब्लॉगजगत मे प्रायिक लिखने के कुछ परिणाम:
एक) नये मित्र बने। जिनसे कभी मिला नहीं, ना ही मिलने की आशंका थी, ऐसे प्यारे मित्रगण एवं हितैषीयों से परिचय हुआ।
दो) अनेक विचार जो मन-हि-मन एक अनुच्चरित मृत्यु पाते थे, उन्हें जीवित रहने की संभावना प्राप्त हुई। अन्य मित्रों के विचार सहित, मेरे विचार पले-बढे, बडे हुए, साकार हुए, और हो रहें हैं।
तीन) मैं स्वतः अधिक अभिव्यंजक हो गया हूँ। मेरे विचार अन्य विचारों के साथ रह कर, उनसे तर्क-वितर्क कर, और बेहतर बन रहें हैं।
चार) मेरे राष्ट्र और भाषा के प्रति अधिक गर्व और प्रेम करने लगा हूँ। इस भाषा की व्यक्त करने के क्षमता को समझने लगा हूँ।
पांच) मेरा हस्तलेख दिन-प्रतिदिन भ्रष्ट (या नष्ट?) हो चला है। आप-लिखी अब पहचान नहीं पा रहा हूँ।
बहुत अच्छा लगा आपके अन्तर्मन की बात जानकर | मुझे भी न्यूनाधिक यही लाभ प्राप्त हुए हैं |
अतुल जी, हस्तलेख के सम्बन्ध में मेरा हाल भी यही है। शायद, कम्प्यूटर पर ज़्यादा समय बिताने वाले हर इंसान के साथ यही होता है।
@अनुनादजी: धन्यवाद। लगता है, यह काफी आम बात है!
@प्रतिकजी: हाँ यह तो सच है। मैं सोच रह हूँ, मेरा हर चिठ्ठा अब पहले कागज़ पर लिखुंगा, फिर ब्लॉग पर। क्या राय है आपकी?
ऐसा हो नहीं पाता। सीधे लिखने की आदत पड़ जाती है तब यही अच्छा है कि छपने के बाद
उसकी नकल करके लेख सुधारा जाय।
@अनूपजी: कठिन काम है ये !
kya baat hai kaafi dino se kuch likha nahi
–Tarun: coming soon!